पूंजीवाद बार-बार संकट में फंसता है। इन संकटों में पूंजी के सारे अंतर्विरोध जोरदार ढंग से जाहिर होते हैं। साम्राज्यवाद को हम लोग पूंजीवाद की चरम अवस्था मानते हैं। लाजिमी है कि इस अवस्था में पूंजीवादी संकट और बड़े आकार धारण करते हैं तथा पूरे विश्व को अपनी चपेट में लेते हैं। बार-बार ऐसा होता है और उसके बाद अपेक्षाकृत द्रुत विकास का दौर आता हैं। ऐसे समय में तात्कालिकता का फायदा उठाकर बुर्जुवा अर्थशास्त्री मौजूदा पूंजीवादी दौर कि श्रेष्ठता का ऐलान करते हैं और कहते हैं कि अब पूंजीवाद ने अपनी त्रुटियों से निजात पा लिया हैं। जैसे, मौजूदा दौर में उनका कहना था कि सूचना क्रांति के चलते पूंजीवादी बाजारों में अब 'सूचना' कि कमी नहीं है और हम इस बात को भांप सकते हैं कि जोखिम किस बात में है। वित्तीय बाजारों में हो रहे नविन परिवर्तनों का गुडगान करते हुए बताया जाता था कि अब जोखिम का बेहतर प्रबंधन हो गया है और अब पिछले संकटों जैसी स्तिथि नही आने वाली है। जब बाजारों में स्तिथि बिगड़ने लगती तो उसे 'विश्वास का संकट' बताया जाता और वित्त मंत्रियों या केंद्रीय बैंक के गवर्नरों के द्वारा जरी वक्तव्यों से माना जाता कि स्तिथि संभल जायेगी। ज्यादा से ज्यादा यह किया जाता कि कुछ वित्तीय व मुद्रा सम्बन्धी कदम उठाए जाते। इसी ओर लक्षित हमारे वित्त मंत्री के आश्वासन भी रहे हैं। लेकिन वित्तीय बाजारों में तथा उत्पादन के क्षेत्र में इसका अब थोड़ा भी असर दिखाई नहीं देता। निर्यात कम हो रहें हैं और इस क्षेत्र में ऋणात्मक विकास दर दिखाई देने लगे हैं। इसी तरह इश्पात व अन्य क्षेत्रों में उत्पादन घटाया जा रहा है। लाजिमी है कि ऐसे में मजदूर वर्ग पर सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। जेट ऐरवेज हो या पेप्सीको या वस्त्र उद्योग हर जगह मजदूरों को निकला जा रहा है। इतना ही नहीं उद्योगपतियों के एक शीर्ष संगठन एसोचैम (ASSOCHAM) ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया था कि आने वाले दिनों में कुल कामगारों के 25 % से ज्यादा कि छतनिया होने कि आशंका है। इस पर तुंरत वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने फटकार लगायी और कहा कि ऐसा कुछ नही होने वाला है। लेकिन यह चुनाओं को ध्यान में रखकर कि गई बातें हैं और इससे कोई फर्क पड़ने वाला नही है। संयुक्त राज्य अमरीका में 'विश्वास बनाने' कि ऐसी चालें असफल हैं और यही स्तिथि पुरे विश्व की है। यह संकट बाजारों कि नाकामयाबी के विश्वास का संकट नही है बल्कि यह जमीनी हकीकत है और हकीकत लुभावनी बातों से नहीं बदलती।
यह हकीकत पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के विशिष्ट चरित्र से जुड़ी है। लेकिन बात को इस रूप में पेश ही नहीं किया जाता, हालाँकि सूत्र रूप में यह माना जाता है कि संकट पूंजीवादी है। इस सूत्र के बावजूद जो बातें कही जाती हैं वो इस तरह कि लगती हैं मनो कुछ नीतियों के चलते ही ऐसा हो रहा हैं। नीतियाँ संकट को प्रभावित जरूर करती हैं और वे इसे कुछ कम कर सकती हैं या फ़िर भयंकर बना सकती हैं। लेकिन नीतियाँ तो वास्तविक अर्थव्यवस्था व मजदूर-मेहनतकश और पूंजीपति वर्ग के आपसी संबंधों से तय होती है। इस संकट के कारणों में जो बातें गिनाई जाती हैं उनमे मोटे तौर पर ये हैं - उन्मुक्त बाजार कि नोतियों ने ऐसी स्तिथि पैदा कि है; वित्तीय बाजारों का अधिक से अधिक स्वतंत्र होना व नियमन का अभाव, केन्द्रीय बैंकों कि ऐसी मुद्रा सम्बन्धी नीतियाँ जिससे बाजारों में मुद्रा तरलता रही, निजी क्षेत्र को मनमाना करने कि छूट, संयुक्त राज्य अमरीका का सबसे बड़ा कर्जदार देश बनना, आदि। इससे पैदा हुए ऐसे ऋण सम्बन्धी व्यवहार जिसके कारण गृह खरीद या निर्माण के लिए दिए गए 'सब प्राइम लोन' (निम्न कोटि के ऋण जिसकी वापसी के आसार कम थे) व बड़े पैमाने पर उपभोक्ता ऋण जैसी चीजों को बढावा मिला। गयात हो कि इसी 'सब-प्राइम लोन' पर भुगतान का न हो पाना ही इस संकट का कारण माना जाता है। इन ऋणों पर आधारित डेरिवेटिव्ज (derivatives) बने और फ़िर उन पर और प्रतिभूतियां बनी और बेचीं गई। इन्हें बड़े पैमाने पर अमरीका के ही नहीं विश्व के दुसरे देशों के वित्तीय संस्थाओं व बैंकों ने भी ख़रीदा। इसके अलावा इसके चलते एक परिसंपति बुलबुला (asset bubble) का भी निर्माण हुआ। घरों के दम बढे और इन्हें गिरवी रखकर ऋण लिए गए। फ़िर गृह निर्माण कार्य में तेजी के चलते अमरीका के बाकि क्षेत्रों में भी माना कि बढोतरी हुई और एक सम्पन्नता का सामान बना। इसके बल पर खूब सट्टेबाजी हुई जिसमें उत्पादन के क्षेत्र में सट्टेबाज निवेश में शामिल हैं और अंत में जब बुलबुला फुटा तो सभी इसके साथ प्रभावित हुए यदि लीमैन ब्रदर्स जैसी बड़ी वित्तीय निवेशक कंपनी को अपने को दिवालिया घोषित करना पड़ा तो अन्य प्रमुख वित्तीय निवेशक संस्थानों को अपने को इस कोटि से हटाकर महज व्यावसायिक बैंक घोषित करना पड़ा और ऐसी स्तिथि का ताँता लगा रहा। सरकार को बड़े पैमाने पर बचाव करना पड़ा। विश्व कि सबसे बड़ी बिमा कंपनी AIG को दिवालियेपन से बचने के लिए सरकार ने उसके करीब 80 % शेयर ख़रीदे और इस तरह उसका सारतः राष्ट्रीयकरण हो गया। निजी पूंजी और उन्मुक्त बाजार के पैरोकारों ने आख़िर राष्ट्रीयकरण किया और कई तरह से वित्तीय संस्थानों को हानि से बचाया। संयुक्त राज्य अमरीका में इस तरह के बचावों का ताता लग गया। इतना ही नहीं इस तरह से सरकारों ने पूरे विश्व में वित्तीय संस्थानो को बचाया। यह रहा मुनाफा का निजीकरण और हानि का समाजीकरण! उन्मुक्त बाजार का एशोगान करने वालों ने मुहं की खाई।
उन्मुक्त बाजारों के विरोधी और राजकीय पूंजी के हिमायती धरों की बन आई। उन्होंने वित्तीय बाजारों के नियमन व मांग को बढाने वाले सरकारी निवेश की किन्सवादी नीतियों की पैरवी शुरू कर दी है। ऐसा करते हुए उन्होंने संकट के चरित्र व उससे पैदा हुई संभावनाओं से इंकार ही किया है। ऐसा करने में हमारे देश के नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियों से लेकर विश्व से कई वामपंथी हलके शामिल हैं। संकट की असली जड़ क्या है? यह है वह पूंजीवादी व्यवस्था जहाँ उत्पादन का द्रुत विकास एक तरफ़ धन का संकेन्द्रण करता है तो दूसरी तरफ़ दरिद्रीकरण। इन सीमाओं के बीच में ही उपभोग की परिस्तिथिया बनती है। ऐसे अंतर्विरोधों पर खड़ी व्यवस्था में धन संकेन्द्रण एक सरदर्द भी बनता है क्योंकि उसका निवेश होना जरूरी है। हम यदि पूंजीवादी उत्पादन का ध्येय उपभोग मानते हैं तो यह ग़लत है। पूंजीवादी उत्पादन और धन कमाने के लिए होता है और यह एक अंतहीन प्रक्रिया हैं। कोई पूंजीपति अपने व्यक्तिगत उपभोग के लिए उत्पादन नहीं करता वरन मुनाफा के लिए करता हैं यानि पूंजी से और पूंजी बनाने के लिए। यही प्रक्रिया जब थम जाती हैं तो संकट का काल आता हैं और बैंक डूबने से लेकर उत्पादन में कटौती होती हैं। मजदूरों की छटनी होती हैं तथा उपभोग और कम होता जाता हैं। एक तरफ़ उत्पादन साधन निठल्ले पड़े रहते हैं तो दूसरी तरफ़ मजदूर। समाज में तो हर चीज की जरूरत बनी रहती हैं तब क्यों फैक्टरियां बंद रहती हैं और मजदूर बेकार? इसलिए की पूंजी के संबंधों के तहत अब ये कम नही कर सकते यानि पूंजीपति को मुनाफा नहीं होता। पिछले दशकों में संयुक्त राज्य अमरीका और पूरे विश्व में धन का बहूत संकेन्द्रण हुआ हैं। इस धन के निवेश को जगह नही मिलने पर सट्टेबाजियां शुरू हुई। 'सब-प्राइम लोन' से लेकर 'वित्तीय नवीकरण' की जड़ इसी में हैं। इसके अलावा साम्राज्यवादी विश्व के सम्बन्ध दुनिया भर से वित्तीय स्रोतों को खिंच कर संयुक्त राज्य अमिरिका में ले आया। इसने अमरीका को सबसे बड़ा कर्जदार देश बनाया। द्रुत गति से विकसित होने वाले चीन जैसे देशों को अत्यधिक बचत यहाँ चली आती हैं। लेकिन गरीबी की हालातों में भी वहां ज्यादा बचत होने का मतलब क्या हैं? इसका मतलब हैं की वहाँ धन का अत्यधिक संकेन्द्रण हैं जिसे पूंजीगत निवेश के लिए लगाया नही जा सकता। गरीब जनता के उपभोग की सीमाएं इसे वर्जित करती हैं। ऐसे में यह धन संयुक्त रही अमरीका आता हैं। यहाँ के डालर की विश्व मुद्रा की विशेषाधिकार वाली स्तिथि व उसकी राजनितिक-सामरिक क्षमता इस धन के 'सुरक्षित' निवेश को आकर्षित करती हैं। यहाँ के सिक्यूरिटी बाजार में निवेश किया जाता हैं और सट्टेबाजी में भी। इसी का एक भाग वहाँ बड़े पैमाने पर दिए जाने वाले उपभोग ऋणों को संभव बनता हैं। पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के मूलभूत अंतर्विरोधों पर ध्यान नही देकर इसमें उन्मुक्त बाजार की स्तिथि, राजकीय हस्तक्षेप व नियमन के अभाव को संकट के कारन बताया जाता हैं। ये तो महज यह दिखाते हैं की वित्त पूंजी की मौजूदा शक्ति और उसकी राजनितिक स्तिथि ने उसकी कार्यसूची को पूर्णतः लागू करने में मदद की। वित्त पूंजी सट्टेबाज चरित्र की होती हैं और वित्त पूंजी के पूर्ण वर्चस्व की स्तिथि में सट्टेबाजी को सुगम बनाने वाली नीतियाँ लागू की गई। पिछली सदी के 90 के दशक में जब पूर्व समाजवादी देशों में खुले रूप से पूंजीवाद की विजय हुई और सोवियत संघ का विघटन हो गया तो पूंजीवाद की श्रेष्ठता का जयगान होने लगा। पूंजीवादी हलकों की यह हेकडी देखने लायक थी। मजदूर वर्ग की एतिहासिक हार ने उसकी हेकड़ी को हद तक बढ़ा दिया और पूंजीवाद के अलावा 'कोई विकल्प नहीं हैं' के तहत उसने उन्मुक्त बाजार के एजेंडे को आगे बढाया (यह उन्मुक्त बाजार बस उसके मनमाना करने की छूट के अलावा कुछ नहीं हैं)। आज डूबने की स्तिथि में सरकारी बचावों ने उसका पर्दाफाश कर दिया हैं।
ऐसी स्तिथि में संयुक्त राज्य अमरीका में 'न्यू डील' की मांग हो रही हैं। न्यू डील ने पिछली सदी के 30 के दशक में आई महामंदी से उबरने में मदद की थी। यह एक बहूत बड़े आकर का कार्यक्रम था जिसमें सरकारी कार्यक्रमों की भरमार थी। किन्स्वादी हर जगह इसी तरह की चीज की वकालत करते हैं। वास्तविकता क्या हैं? यह ठीक हैं की इसने एक हद तक स्तिथि को सँभालने में मदद की लेकिन यह भी सही हैं की स्तिथि केवल द्वितीय विश्व युद्घ ने ही संभाली। पूरे अमरीका में निठ्ठला पड़े संसाधनों का उसी के चलते राजकीय नियमन व योजना के तहत प्रयोग हो पाया और इसी से लोगों को रोजगार भी मिला। यह दीखता हैं की कैसे साम्राज्यवाद को समाजवाद के सदृश रूपों को अपनाना पड़ता हैं। लेकिन अंतर्वस्तु में यह बिल्कुल विपरीत हैं और यह वर्ग खाई पर खड़ा होता हैं। यहाँ वस्तुतः जनता की सुख-समृधि के लिए नही बल्कि विनाश करने के लिए संसाधनों का उपयोग हुआ यानि विश्व युद्घ के लिए, जिससे वित्त पूंजी के मालिकों का बेशुमार मुनाफा हुआ। जाहिर हैं की पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की स्तिथि में ऐसी योजना युद्घ अर्थवयवस्था के तहत ही हो सकती थी। नृशंस हत्याओं की जमीं पर ही यह योजना साकार हो पाई। ऐसे में समाजवाद को विकल्प के रूप में न पेश कर वामपंथी अर्थशाश्त्री यदि मांग बढोतरी, राष्ट्रीयकरण, वित्तीय बाजारों के नियमन के नुस्खे पेश कर रहे हैं तो वे अपना पूंजीवादी चरित्र ही दिखा रहे हैं। आज समाजवाद की श्रेष्ठता फ़िर साबित हो रही हैं। केवल एक ऐसी व्यवस्था ही संकट का सही इलाज हो सकती हैं जहाँ मुट्ठीभर हाथों में धन का संकेन्द्रण न हो और जहाँ अपार संसाधनों का उपयोग जनता के जीवन को सुखी बनाने में हो। वहां उत्पादन का नियोजन होगा और बाजार की अंधी शक्तियों का बोलबाला नही होगा और न ही संकट होंगे और न ही उसके साथ होने वाले विनाश। जब पुछली सदी के तीस के दशक में पूरा पूंजीवादी विश्व संकट तले कराह रहा था तो समाजवादी सोवियत संघ में लोग खुशहाली देख रहे थे। आज भी केवल समाजवादी समाज ही इस संकट का वास्तविक जनपक्षीय हल कर सकता हैं।
यह हकीकत पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के विशिष्ट चरित्र से जुड़ी है। लेकिन बात को इस रूप में पेश ही नहीं किया जाता, हालाँकि सूत्र रूप में यह माना जाता है कि संकट पूंजीवादी है। इस सूत्र के बावजूद जो बातें कही जाती हैं वो इस तरह कि लगती हैं मनो कुछ नीतियों के चलते ही ऐसा हो रहा हैं। नीतियाँ संकट को प्रभावित जरूर करती हैं और वे इसे कुछ कम कर सकती हैं या फ़िर भयंकर बना सकती हैं। लेकिन नीतियाँ तो वास्तविक अर्थव्यवस्था व मजदूर-मेहनतकश और पूंजीपति वर्ग के आपसी संबंधों से तय होती है। इस संकट के कारणों में जो बातें गिनाई जाती हैं उनमे मोटे तौर पर ये हैं - उन्मुक्त बाजार कि नोतियों ने ऐसी स्तिथि पैदा कि है; वित्तीय बाजारों का अधिक से अधिक स्वतंत्र होना व नियमन का अभाव, केन्द्रीय बैंकों कि ऐसी मुद्रा सम्बन्धी नीतियाँ जिससे बाजारों में मुद्रा तरलता रही, निजी क्षेत्र को मनमाना करने कि छूट, संयुक्त राज्य अमरीका का सबसे बड़ा कर्जदार देश बनना, आदि। इससे पैदा हुए ऐसे ऋण सम्बन्धी व्यवहार जिसके कारण गृह खरीद या निर्माण के लिए दिए गए 'सब प्राइम लोन' (निम्न कोटि के ऋण जिसकी वापसी के आसार कम थे) व बड़े पैमाने पर उपभोक्ता ऋण जैसी चीजों को बढावा मिला। गयात हो कि इसी 'सब-प्राइम लोन' पर भुगतान का न हो पाना ही इस संकट का कारण माना जाता है। इन ऋणों पर आधारित डेरिवेटिव्ज (derivatives) बने और फ़िर उन पर और प्रतिभूतियां बनी और बेचीं गई। इन्हें बड़े पैमाने पर अमरीका के ही नहीं विश्व के दुसरे देशों के वित्तीय संस्थाओं व बैंकों ने भी ख़रीदा। इसके अलावा इसके चलते एक परिसंपति बुलबुला (asset bubble) का भी निर्माण हुआ। घरों के दम बढे और इन्हें गिरवी रखकर ऋण लिए गए। फ़िर गृह निर्माण कार्य में तेजी के चलते अमरीका के बाकि क्षेत्रों में भी माना कि बढोतरी हुई और एक सम्पन्नता का सामान बना। इसके बल पर खूब सट्टेबाजी हुई जिसमें उत्पादन के क्षेत्र में सट्टेबाज निवेश में शामिल हैं और अंत में जब बुलबुला फुटा तो सभी इसके साथ प्रभावित हुए यदि लीमैन ब्रदर्स जैसी बड़ी वित्तीय निवेशक कंपनी को अपने को दिवालिया घोषित करना पड़ा तो अन्य प्रमुख वित्तीय निवेशक संस्थानों को अपने को इस कोटि से हटाकर महज व्यावसायिक बैंक घोषित करना पड़ा और ऐसी स्तिथि का ताँता लगा रहा। सरकार को बड़े पैमाने पर बचाव करना पड़ा। विश्व कि सबसे बड़ी बिमा कंपनी AIG को दिवालियेपन से बचने के लिए सरकार ने उसके करीब 80 % शेयर ख़रीदे और इस तरह उसका सारतः राष्ट्रीयकरण हो गया। निजी पूंजी और उन्मुक्त बाजार के पैरोकारों ने आख़िर राष्ट्रीयकरण किया और कई तरह से वित्तीय संस्थानों को हानि से बचाया। संयुक्त राज्य अमरीका में इस तरह के बचावों का ताता लग गया। इतना ही नहीं इस तरह से सरकारों ने पूरे विश्व में वित्तीय संस्थानो को बचाया। यह रहा मुनाफा का निजीकरण और हानि का समाजीकरण! उन्मुक्त बाजार का एशोगान करने वालों ने मुहं की खाई।
उन्मुक्त बाजारों के विरोधी और राजकीय पूंजी के हिमायती धरों की बन आई। उन्होंने वित्तीय बाजारों के नियमन व मांग को बढाने वाले सरकारी निवेश की किन्सवादी नीतियों की पैरवी शुरू कर दी है। ऐसा करते हुए उन्होंने संकट के चरित्र व उससे पैदा हुई संभावनाओं से इंकार ही किया है। ऐसा करने में हमारे देश के नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियों से लेकर विश्व से कई वामपंथी हलके शामिल हैं। संकट की असली जड़ क्या है? यह है वह पूंजीवादी व्यवस्था जहाँ उत्पादन का द्रुत विकास एक तरफ़ धन का संकेन्द्रण करता है तो दूसरी तरफ़ दरिद्रीकरण। इन सीमाओं के बीच में ही उपभोग की परिस्तिथिया बनती है। ऐसे अंतर्विरोधों पर खड़ी व्यवस्था में धन संकेन्द्रण एक सरदर्द भी बनता है क्योंकि उसका निवेश होना जरूरी है। हम यदि पूंजीवादी उत्पादन का ध्येय उपभोग मानते हैं तो यह ग़लत है। पूंजीवादी उत्पादन और धन कमाने के लिए होता है और यह एक अंतहीन प्रक्रिया हैं। कोई पूंजीपति अपने व्यक्तिगत उपभोग के लिए उत्पादन नहीं करता वरन मुनाफा के लिए करता हैं यानि पूंजी से और पूंजी बनाने के लिए। यही प्रक्रिया जब थम जाती हैं तो संकट का काल आता हैं और बैंक डूबने से लेकर उत्पादन में कटौती होती हैं। मजदूरों की छटनी होती हैं तथा उपभोग और कम होता जाता हैं। एक तरफ़ उत्पादन साधन निठल्ले पड़े रहते हैं तो दूसरी तरफ़ मजदूर। समाज में तो हर चीज की जरूरत बनी रहती हैं तब क्यों फैक्टरियां बंद रहती हैं और मजदूर बेकार? इसलिए की पूंजी के संबंधों के तहत अब ये कम नही कर सकते यानि पूंजीपति को मुनाफा नहीं होता। पिछले दशकों में संयुक्त राज्य अमरीका और पूरे विश्व में धन का बहूत संकेन्द्रण हुआ हैं। इस धन के निवेश को जगह नही मिलने पर सट्टेबाजियां शुरू हुई। 'सब-प्राइम लोन' से लेकर 'वित्तीय नवीकरण' की जड़ इसी में हैं। इसके अलावा साम्राज्यवादी विश्व के सम्बन्ध दुनिया भर से वित्तीय स्रोतों को खिंच कर संयुक्त राज्य अमिरिका में ले आया। इसने अमरीका को सबसे बड़ा कर्जदार देश बनाया। द्रुत गति से विकसित होने वाले चीन जैसे देशों को अत्यधिक बचत यहाँ चली आती हैं। लेकिन गरीबी की हालातों में भी वहां ज्यादा बचत होने का मतलब क्या हैं? इसका मतलब हैं की वहाँ धन का अत्यधिक संकेन्द्रण हैं जिसे पूंजीगत निवेश के लिए लगाया नही जा सकता। गरीब जनता के उपभोग की सीमाएं इसे वर्जित करती हैं। ऐसे में यह धन संयुक्त रही अमरीका आता हैं। यहाँ के डालर की विश्व मुद्रा की विशेषाधिकार वाली स्तिथि व उसकी राजनितिक-सामरिक क्षमता इस धन के 'सुरक्षित' निवेश को आकर्षित करती हैं। यहाँ के सिक्यूरिटी बाजार में निवेश किया जाता हैं और सट्टेबाजी में भी। इसी का एक भाग वहाँ बड़े पैमाने पर दिए जाने वाले उपभोग ऋणों को संभव बनता हैं। पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के मूलभूत अंतर्विरोधों पर ध्यान नही देकर इसमें उन्मुक्त बाजार की स्तिथि, राजकीय हस्तक्षेप व नियमन के अभाव को संकट के कारन बताया जाता हैं। ये तो महज यह दिखाते हैं की वित्त पूंजी की मौजूदा शक्ति और उसकी राजनितिक स्तिथि ने उसकी कार्यसूची को पूर्णतः लागू करने में मदद की। वित्त पूंजी सट्टेबाज चरित्र की होती हैं और वित्त पूंजी के पूर्ण वर्चस्व की स्तिथि में सट्टेबाजी को सुगम बनाने वाली नीतियाँ लागू की गई। पिछली सदी के 90 के दशक में जब पूर्व समाजवादी देशों में खुले रूप से पूंजीवाद की विजय हुई और सोवियत संघ का विघटन हो गया तो पूंजीवाद की श्रेष्ठता का जयगान होने लगा। पूंजीवादी हलकों की यह हेकडी देखने लायक थी। मजदूर वर्ग की एतिहासिक हार ने उसकी हेकड़ी को हद तक बढ़ा दिया और पूंजीवाद के अलावा 'कोई विकल्प नहीं हैं' के तहत उसने उन्मुक्त बाजार के एजेंडे को आगे बढाया (यह उन्मुक्त बाजार बस उसके मनमाना करने की छूट के अलावा कुछ नहीं हैं)। आज डूबने की स्तिथि में सरकारी बचावों ने उसका पर्दाफाश कर दिया हैं।
ऐसी स्तिथि में संयुक्त राज्य अमरीका में 'न्यू डील' की मांग हो रही हैं। न्यू डील ने पिछली सदी के 30 के दशक में आई महामंदी से उबरने में मदद की थी। यह एक बहूत बड़े आकर का कार्यक्रम था जिसमें सरकारी कार्यक्रमों की भरमार थी। किन्स्वादी हर जगह इसी तरह की चीज की वकालत करते हैं। वास्तविकता क्या हैं? यह ठीक हैं की इसने एक हद तक स्तिथि को सँभालने में मदद की लेकिन यह भी सही हैं की स्तिथि केवल द्वितीय विश्व युद्घ ने ही संभाली। पूरे अमरीका में निठ्ठला पड़े संसाधनों का उसी के चलते राजकीय नियमन व योजना के तहत प्रयोग हो पाया और इसी से लोगों को रोजगार भी मिला। यह दीखता हैं की कैसे साम्राज्यवाद को समाजवाद के सदृश रूपों को अपनाना पड़ता हैं। लेकिन अंतर्वस्तु में यह बिल्कुल विपरीत हैं और यह वर्ग खाई पर खड़ा होता हैं। यहाँ वस्तुतः जनता की सुख-समृधि के लिए नही बल्कि विनाश करने के लिए संसाधनों का उपयोग हुआ यानि विश्व युद्घ के लिए, जिससे वित्त पूंजी के मालिकों का बेशुमार मुनाफा हुआ। जाहिर हैं की पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की स्तिथि में ऐसी योजना युद्घ अर्थवयवस्था के तहत ही हो सकती थी। नृशंस हत्याओं की जमीं पर ही यह योजना साकार हो पाई। ऐसे में समाजवाद को विकल्प के रूप में न पेश कर वामपंथी अर्थशाश्त्री यदि मांग बढोतरी, राष्ट्रीयकरण, वित्तीय बाजारों के नियमन के नुस्खे पेश कर रहे हैं तो वे अपना पूंजीवादी चरित्र ही दिखा रहे हैं। आज समाजवाद की श्रेष्ठता फ़िर साबित हो रही हैं। केवल एक ऐसी व्यवस्था ही संकट का सही इलाज हो सकती हैं जहाँ मुट्ठीभर हाथों में धन का संकेन्द्रण न हो और जहाँ अपार संसाधनों का उपयोग जनता के जीवन को सुखी बनाने में हो। वहां उत्पादन का नियोजन होगा और बाजार की अंधी शक्तियों का बोलबाला नही होगा और न ही संकट होंगे और न ही उसके साथ होने वाले विनाश। जब पुछली सदी के तीस के दशक में पूरा पूंजीवादी विश्व संकट तले कराह रहा था तो समाजवादी सोवियत संघ में लोग खुशहाली देख रहे थे। आज भी केवल समाजवादी समाज ही इस संकट का वास्तविक जनपक्षीय हल कर सकता हैं।